Friday 3 July 2015

मुसल्सल ग़ज़ल

बाग़ फूलों का, सावन में.. बिखर भी सकता है।
चाहते-जीस्त में.. यौवन संवर भी सकता है।

गलत ख्याल है ये, कि मंज़िल पे फिर मिलेंगे हम
सफर के बीच में.. मुसाफिर उतर भी सकता है।

फरेबी फितरत है, मिज़ाज़ भौरों सा
किसी भी सांस पे.. ये दिल मुकर भी सकता है।

ज़रा सा वक़्त लगेगा, मंज़र बदलने में
मरीज़-ऐ-इश्क़ का क्या.. कभी सुधर भी सकता है।

वो रुखसती का एक लम्हा कबसे अटका है
तेरी दुआ जो मिलती रहे.. गुज़र भी सकता है।।

Sunday 5 April 2015

इतवार

इतवारें होतीं थीं तब,
अब तो बस इतवारें आती हैं।
कुछ नाप हमारा छोटा था
बिन झुके, आँख मिला पाते थे फूलों से।
सूरज कुछ और दमकता था
कुछ ज्यादा सुबह उठ जाते थे हम भी।

सप्ताह भर के थकान के बाद
बाबूजी के नींद अमृत घोलती थी आँखों में।
सुबह-सवेरे साथ सैर पर जाते थे।
थक जाने के भाव बनाकर,
चढ़ गोदी पे इतराते थे।
साप्ताहिक खरीदारी होती थी सब्ज़ियों की
मुझे याद है अब तक,
झोला भर जाता था आढ़ी-टेढ़ी सब्ज़ियों से
चार लोगों का परिवार था, सात दिनों का चारा था।
कुछ बड़ा हुआ तो वीर-श्रवण सा
छीन लेता था झोला बाबूजी के हाथों से।
जैसे तैसे घर तक घींच-तान के लाता था।

बड़ा कुछ ज्यादा हो गया हूँ अब जैसे,
छुट्टियों से भी छुट्टी मिली है, तो घर आया हूँ।
आज मन किया फिर अपना वो इतवार जीने का,
छीन लिया फिर सब्ज़ी का झोला हाथ बढाकर।
वो वाकिफ-सा वजन नहीं था,
आँख कुछ डबडबाई, कुछ दिल ने कन्धा कमज़ोर किया।
दूर हुए हम, वजन हुआ कम
पर क्या अब वो तुच्ची-सी सब्ज़ियाँ खरीदना उनको भाता होगा
वजन के अभाव से उनका कलेजा भारी हो जाता होगा
खाली झोला, खाली घर का एहसास जरूर कराता होगा।
बाबस्ता कितना बोझ ढोते आये हैं बाबूजी
आधी सब्ज़ी, और अब आधा घर का खालीपन।

दौड़ लगी है एक इतवार फांदकर दूसरे इतवार जाने को।
भागते थे पहले भी, बाबूजी के स्कूटर पे बैठने को
पर वो दौड़ और थी, वो दौर और था।
वो इत्र-सा महका इतवार और था।

इतवारें होतीं थीं तब
अब तो बस इतवारें आती हैं।

Tuesday 23 December 2014

कैंप-फायर


आग तापी गई है आज..
लम्बी लम्बी लकड़ियाँ जमाई गयी थीं।
एक बौने से कुन्दे को जब गौर से देखा
दो लोगों के नाम लिखे थे।
हाल का ही एक किस्सा होगा
पेड़ों को लम्बी उम्र नसीब कहाँ होती है अब।
सड़कों पे जो छाँव रहती थी
उसे तो टुकड़ा टुकड़ा काट कर लिए जाते हैं सब।

बड़ा ढीट प्रेम रहा होगा
केरासिन की एक नदी बही
तब जलने का काम हुआ।
बहुत गाठें पड़ी थीं रिश्ते में शायद
आवाज़ें कर-कर खुलती जाती हैं।
बीच-बीच में तेज चिंगारी उठती
अंतरिक्ष छू लेने को।
अमर होने की चाह रही होगी प्रेम को उनके
न हुआ अमर , तो मोक्ष सही।

बड़ी आग थी प्रेम में उनके
मुर्दों को भी ताप चुभोकर
थिरकाया है घंटों तक।
उधड़ी-उधड़ी रौशनी भी संग-संग
ऐढी पाँव पटक कर नाच रही है।
बहुत पहले एक अग्नि-संस्कार देखा था मैंने
बेटा बाप की चिता को आग लगाकर
गोल-गोल घूमता था उसके।
बहुत संतानें हैं प्रेम की शायद फिर
दर्जनो-दर्जन प्रेम-चिता के गोल-गोल नाचे जाते हैं।

कल सुबह जब रिश्ते की राख
मिट्टी की चादर ओढ़ के सोया होगा
निकलेंगे जवान
मदहोशी का इत्र चढ़ाकर
रात की आग से तपे-तपाकर।
शिल्पकारी होगी पेड़ों पे नए नामों की
अमर होने का ध्यान किये,
लिपटा रहेगा रिश्ता तने से बिन हलचल।
कट भी गए तो, पेड़ बहुत हैं, नाम बहुत हैं
सुना था प्रेम अमर होता है, अमर ही होगा
मेरा न सही, तुम्हारा न सही...

Sunday 30 November 2014

अगर वो पूछ लें हमसे

अगर वो पूछ लें हमसे, कहो किस बात का गम है।
तो फिर किस बात का गम हो, अगर वो पूछ लें हमसे।।

अगर वो पूछ लें हमसे, कहाँ रहते हो शामों में।
तो शामों में कहाँ हम हों, अगर वो पूछ लें हमसे।।

मलाल-ए-इश्क़ इतना है, सवालों की गिरह में हूँ ।
जो तुम पूछो- जवाबें दूँ, जो न पूछो- किसे कह दूँ !

मुनासिब है न मूँह खोलो, न पूछो और न कुछ जानो। 
पर उस निगाह का क्या हो, जिरह करती है जो हमसे।।

गुल-ए-गुलज़ार हो तुम, हर हवा का रुख तुम्ही पर है।
मगर झूमो तो यूँ झूमो, जो टूटो - पास आ जाओ।।

मैं ही बता देता, पर डर है - है किस्सा मोहब्बत का,
कि अंत आगाज़ का जब हो, आगाज़ अंत का न हो।।

Tuesday 18 March 2014

ग़ज़ल - याद आता है



वही खिड़की, वही दीवार, वही दर याद आता है,
अकेला जब भी होता हूँ, मुझे घर याद आता है।

सियाह बादल, हवाएँ तेज़, चिंगारी सी बरसातें, 
तेरे बिखरे हुए ज़ुल्फ़ों का मंज़र याद आता है। 

हो जब तक साथ खुशहाली,किसे फुर्सत कि कुछ सोचे,
जब ठोकर सी लगती है, मुक्कदर याद आता है। 

तुझे जब सामने देखूं, तो फिर गुलज़ार हो ये दिल,
तू जब भी दूर होता है, गिला था , याद आता है।  

लबों को देखते रहने में ही, खोया रहा हूँ मैं,
अब जाकर तेरी बातों का खंजर याद आता है। 

सर पर खड़े होकर, ये सूरज ताकता है जब, 
तब ओंस में भींगा दिसंबर याद आता है। 

Friday 24 January 2014

बगीचा


एक बगीचा था जहाँ तुम्हारे छाँव की छींटें पड़ीं थीं कभी। 
वहाँ की मिटटी भी तुम ही चल-चलके कोढ़ देती थी।
तुम्हारे तलवे कि छुवन सलामत है अब भी,
कि तुम लौटकर आओ कभी तो अपने निशान देखो। 

मैं माली हूँ मगर बागबानी के काबिल नहीं रहा। 
अब तो दिल की ईटों पे धूल जमके मिट्टी हुई जाती है। 
बगीचे के सीना-ये-कंक्रीट से भी अंकुर फूट आये,
जन्म लेते ही गुलेगुलज़ार का पता मांगते हैं।  

बांवले से हो गये हैं सारे सूरजमुखी के फूल। 
सूरज को भूल, तेरे आने का रस्ता तकते हैं।
हुई मुद्दत कि जब तुम्हारा मन हुआ हो आने का ,
कि तुम आओ तो दिल का रेगिस्तान, बगीचा बन जाये।।

Wednesday 17 July 2013

अब जाग मूर्ख ! तेरी भोर हुई !

अब रंग बदल इस जीवन का,
रंगों में खूब नहाए हो !
कभी लाल हुए गुस्से में तर,  
हुए नीले, जीवन-विष पीकर।
कभी कालिक मली है कर्मों की,
हुए श्वेत कभी तुम दुःख जीकर। 
जब रंगों में हो युद्ध छिड़ी,
क्या रंग शेष रह जायेगा !
तब श्याम रंग ही छाएगा। 
जीवन अंधकार को जायेगा।
अब जाग मूर्ख ! तेरी भोर हुई !

सूरज को रंग बदलता देख।
जीवन की सूक्ष्म सरलता देख।
जब आये वसन्त,तब हरा देख।
गर्मी में जलती धरा देख। 
जब बारिश पायल-बाँध झमके,
निर्मल बूंदों को सजा देख।
पतझर भी जो तू देख सका,
पीले धरती की घटा देख।
कृत्रिम रंगों की चमक फेक,    .
दुर्बल भावों के ऐनक फेक।
अब जाग मूर्ख ! तेरी भोर हुई !

है शोर बहुत तेरे जीवन में,
है  कोलाहल अन्तः मन में।
कभी चिल्लाते अरमान तेरे,   
कभी गुर्राते हैं प्राण तेरे। 
शहरों के चौड़े सड़कों पर
सुनते बस शोर दिशाओं में।
रातें भी तेरी मौन नहीं,
है यौवन का भी मान तुम्हें।   
जब शोर में यूँ नहाओगे,
निज-धड़कन कैसे सुन पाओगे !
अब जाग मूर्ख ! तेरी भोर हुई !

कभी सुना है तूने कानों से,
सूर्योदय के पहले का सन्नाटा
वायु का वेग,जल का कलरव,
क्या तेरे कानों तक आता
क्या कोयल,काक और बुलबुल की
वाणी का है बोध तुझे?
है तू उल्लू, या उल्लू की हूट
तू सुन सकता जब सूर्य बुझे?
कभी आँख मूँद और मौन साध,
सुन प्रकृति के शंखनाद।
अब जाग मूर्ख ! तेरी भोर हुई 

घर बदल दर बदल,
बस आँखों का चादर बदल।
विवश होके ये प्राण  ढो,
हल्का करले अरमानों को।
मत सोच अधिक 
कि पाथ कठिन।
कुछ देर अगर तू चाहे तो 
करले बंद दिमाग के कान,
मूंद ले दिल के नयन।
और आँखों से देख!कानों से सुन!

अब जाग मूर्ख ! तेरी भोर हुई !